भारत मे अंग्रेजों का आगमन को एक नये युग का सूत्रपात माना जा सकता है। सन् 1600 ई. में कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ से, भारत से व्यापार करने की अनुमति ली।
इसके लिए उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक एक कम्पनी बनाई। उस समय तक पुर्तगाली यात्रियों ने भारत की यात्रा का समुद्री मार्ग खोज निकाला था।उस समय भारत पर मुगल बादशाह ज़हाँगीर का शासन था। हॉकिंस अपने साथ इंग्लैण्ड के बादशाह जेम्स प्रथम का एक पत्र ज़हाँगीर के नाम लाया था। उसने ज़हाँगीर के राज-दरबार में स्वयं को राजदूत के रूप में पेश किया तथा घुटनों के बल झुककर उसने बादशाह ज़हाँगीर को सलाम किया। चूंकि वह इंग्लैण्ड के सम्राट का राजदूत बनकर आया था, इसलिए ज़हाँगीर ने भारतीय परम्परा के अनुरूप अतिथि का विशेष स्वागत किया तथा उसे सम्मान दिया। ज़हाँगीर को क्या पता था कि जिस अंग्रेज कौम के इस तथाकथित नुमाइन्दे को वह सम्मान दे रहा है, एक दिन इसी कौम के वंशज भारत पर शासन कव्यापार करने तो हॉकिंस भी आया था। उसने अपने प्रति ज़हाँगीर की सहृदय तथा उदार व्यवहार को देखकर अवसर का पूरा लाभ उठाया।शाहजहाँ की एक पुत्री का इलाज करने वाले अंग्रेज डॉक्टर ने हुगली में ज़हाज़ लाने तथा माल की चुंगी चुकाना क्षमा करवा लिया। औरंगज़ेब के शासन-काल में एक बार फिर पुर्तगालियों का प्रभाव बढ़ चुका था। मुंबई का टापू उनके अधिकार में बल, वीरता तथा सहनशक्ति में भारतवासी यूरोप से बढ़कर थेअंग्रेजों की निगाहें भारत के खजाने तथा यहाँ शासन करने पर लगी हुई थीं।
अपने अधिकारियों के प्रति वफ़ादारी का भाव भी भारतीय सिपाहियों में जबर्दस्त था। किन्तु राष्ट्रीयता के भाव या स्वदेश के विचार का उनमें नितांत अभाव था। उन्हें बड़ी आसानी से यूरोपियन ढंग से सैनिक शिक्षा दी जा सकती थी तथा यूरोपियन अधिकारियों के अधीन रखा जा सकता था। इसलिए विदेशियों का यह सारा काम बड़ी सुन्दरता के साथ भारतीय सिपाहियों से निकल सकता था कर्नल स्मिथ नामक अंग्रेज ने जर्मनी के साथ मिलकर बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा विजय करने तथा उन्हें लूटने की एक योजना गुपचुप तैयार करके यूरोप भेजी थी।